धर्म डेस्क। महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति के इतिहास वर्ग में आता है। कभी कभी इसे केवल भारत कहा जाता है। यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। महाभारत ग्रंथ का लेखन भगवान् गणेश ने महर्षि वेदव्यास से सुन सुनकर किया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी।
प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की, ऐसा माना जाता है।पाराशर एवं व्यास दोनों अलग गोत्र हैं इसलिए इंटरनेट पर कहीं भी दोनों गोत्रों को समान मानना गलत है।वह पराशर मुनि के पुत्र थे। व्यास एवं पाराशर गोत्र में विवाह निषेध है। हाँ भावी वर का स्वयं का गोत्र इन दोनों गोत्रों से भिन्न होना चाहिये।
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे। तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जावेंगे। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है।
महाभारत के युद्ध में करीब 50 लाख से ज्यादा लोगों ने भाग लिया था। लेकिन यहाँ अब सवाल यह उठता है कि इतनी विशाल सेना के लिए युद्ध के दौरान भोजन कौन बनाता था और इतने लोगों के भोजन का प्रबंध कैसे होता था ? और उससे बड़ा सवाल यह है की जब हर दिन हजारों लोग मारे जाते थे तो शाम का खाना किस हिसाब-किताब से बनता था?
महाभारत युद्ध
महाभारत को हम सही मायने में विश्व का प्रथम विश्वयुद्ध कह सकते हैं। क्योंकि उस समय शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग ना लिया हो।उस समय भारतवर्ष के समस्त राजा या तो कौरव अथवा पांडव के पक्ष में खड़े दिख रहे थे। हम सभी जानते हैं की श्री बलराम और रुक्मी ये दो ही व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया। किन्तु एक और राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरक्त था। और वो था दक्षिण का राज्य “उडुपी”।
महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार जब उडुपी के राजा अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपने-अपने पक्ष में लाने का प्रयत्न करने लगे।लेकिन उडुपी के राजा बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा हे माधव ! दोनों ओर से जिसे भी देखो युद्ध के लिए व्याकुल दिखता है किन्तु क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कैसे होगा ?तब इस पर श्रीकृष्ण ने कहा – महाराज ! आपने बिलकुल सही सोचा है। आपके पास इसकी कोई योजना है। अगर ऐसा है तो कृपया बताएं। उसके बाद उडुपी नरेश ने कहा वासुदेव ! सत्य तो यह है की भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को मैं उचित नहीं मानता। इसीलिए इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मेरी नहीं है। किन्तु ये युद्ध अब टाला नहीं जा सकता इसी कारण मेरी ये इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहाँ उपस्थित समस्त सेना के भोजन का प्रबंध करूँ।
राजा के बात पर श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा महाराज ! आपका विचार अति उत्तम है। इस युद्ध में लगभग 50 लाख योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसा राजा उनके भोजन के प्रबंधन को देखेगा तो हम सभी उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगे। वैसे भी मुझे पता है कि सागर जितनी इस विशाल सेना के भोजन प्रबंधन करना आपके और भीमसेन के आलावा और कोई नहीं कर सकता। किन्तु भीमसेन इस युद्ध से खुद को अलग नहीं कर सकते। अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेना के भोजन का प्रबंध करें। इस प्रकार उडुपी के महाराज ने सेना के भोजन का प्रभार संभाला।
पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया। उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना अन्न का भी बर्बाद नहीं होता था।जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी। दोनों ओर के योद्धा यह देख कर हैरान हो जाते थे कि दिन के अंत तक उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में युद्ध के बाद जीवित होते थे। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धाओं की मृत्यु होगी। इतने विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उसपर भी इस प्रकार कि अन्न का एक दाना भी बर्बाद ना हो, ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था।
अठारहवें दिन युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई। फिर युधिष्ठिर का राजयभिषेक हुए तब युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया की महाराज सभी हमलोगों की प्रशसा करा रहे हैं की किस प्रकार हमने उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे।किन्तु मुझे लगता है कि हम सब से अधिक प्रशंसा के पात्र आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंधन किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया। मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ।
इसपर उडुपी नरेश ने कहा सम्राट ! आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगे ? इसपर युधिष्ठिर ने कहा श्रीकृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसे जा सकता है ? अगर वे ना होते तो कौरव सेना को परास्त करना असंभव था।तब उडुपी नरेश ने कहा महाराज ! आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे हैं वो भी श्रीकृष्ण के प्रताप से ही संभव हुआ है। ।ऐसा सुन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।
तब उडुपी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा महाराज! श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में मूँगफली खाते थे। मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूँगफली रखता था और उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था कि उन्होंने कितनी मूंगफली खायी है। वे जितनी मूँगफली खाते थे उससे ठीक 1000 गुणा सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे। अर्थात अगर वे 50 मूँगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन 50000 योद्धा युद्ध में मारे जाएँगे। उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन बनाता था। यही कारण था कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ। श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए।