हर साल 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। हिन्दी को लेकर विशेष चर्चा होती है। नगरों-महानगरों में हिन्दी के विद्वान इक्कठा होते हैं और इसकी दशा-दूर्दशा पर घंटों बहस चलती है। हिन्दी के उत्थान के लिए कई योजनाएं बनती हैं। लेकिन कितनी धरातल पर उतर पाती हैं, इसका हिसाब लगा पाना मुश्किल है। लेकिन जैसा हम सभी हर दिन देखते-समझते है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि हिन्दी की दशा दयनीय नहीं है, अगर इसकी समानता इंग्लिश या किसी अन्य भाषा से ना करें तो। क्योंकि हर भाषा की अपनी एक गरिमा है और उसी के आधार पर हर भाषा का विस्तार होता है।
अगर किसी भी भाषा में अच्छा साहित्य लिखा जा रहा है, अच्छी फिल्म बन रही है तो उसका प्रभाव हर भाषा बोलने-समझने वालों पर पड़ता है। उदाहरण के तौर पर तेलुगु फिल्म ‘बाहूबली’ को ही ले लीजिए। तेलुगु में बनी फिल्म मात्र साऊथ में ही नहीं, बल्की देश के हर राज्य में यहां तक कि विदेशों में भी काफी पसंद की गई। इस फिल्म ने अपने बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के दौरान अनुमानित 105 मिलियन टिकट (सभी भाषाओं को संयुक्त) बेचा। और इसके हिन्दी डब किए गए संस्करण ने तो कई रिकॉर्ड तोड़ दिए।
बॉलीवुड ने तो हिन्दी की बहुत सेवा की है। पूरी दुनिया में हिन्दी को प्रसिद्धि दिलाई है। पूरा देश तो साल में सिर्फ एक दिन हिन्दी दिवस मनाता है। हिन्दी भाषा पर विशेष रूप से चर्चा करता है, लेकिन बॉलीवुड तो हर हफ्ते हिन्दी को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाता है। बॉलीवुड की ही देन है कि जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा राष्ट्रपति रहते भारत आए और उन्हें युवाओं को संबोधित करने का मौका मिला तो उन्होंने अपने भाषण के दौरान कहा था, ‘बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं सेन्योरिटा’। ऐसे और कई मौके आये हैं,,,जब विदेशी नेता या प्रसिद्ध लोग भारत में संबोधन के दौरान हिन्दी शब्द का प्रयोग किया है और ये शब्द उन्हें बॉलीवुड ही सिखाता है।
गुलज़ार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी जैसे दिग्गज हिन्दी सेवक तो आज के युवाओं के प्रेरणा हैं। यही वजह है कि अब हिन्दी साहित्य से तो ऐसे-ऐसे लोग जुड़ रहे हैं, जिनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा ही इंग्लिश मीडियम में हुई है। कई लोग तो ऐसे हैं, जो पेशे से इंजीनियर हैं, डॉक्टर हैं, बिजनेसमैन हैं। लेकिन हिन्दी में कविता और कहानियां लिखते हैं और अच्छी बात ये है कि ये लोग हिन्दी साहित्य के साथ पूरा न्याय कर रहे हैं। लेकिन एक कमी खलती है,,,क्योंकि हिन्दी का विस्तार सिर्फ दो क्षेत्रों में ही हो पा रहा है। साहित्य और फिल्म, लेकिन अच्छी बात ये है कि अलग-अलग प्रोफेशन से जुड़े युवा हिन्दी में अपनी रूचि दिखा रहे हैं और हिन्दी का सम्मान भी कर रहे हैं। यही नहीं, कई बार तो 21 सदी के नए ख़याल के युवा ये विचार करते दिखाई देते हैं कि इंग्लिश की तरह हिन्दी में भी ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जाए, जिससे अच्छा रोजगार मिल सके। जानते है ये आसान नहीं है, लेकिन अगर विचार शुरू हो गये हैं, तो इसपर काम भी ज़रूर होगा। और यही रास्ता है हिन्दी को और समृद्धि की ओर ले जायेगा।
अक्सर लोग कहते हुए सुने जाते हैं कि कई देशों के पास अपनी राष्ट्रभाषा है, भारत के पास क्यों नहीं है ? हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग अक्सर उठती रहती है, लेकिन यह मांग इस वजह से पूरी नहीं हो पाती कि भारत में बहुत सारी भाषाएं हैं। अगर नॉर्थ में ज़्यादा हिन्दी भाषी हैं,,,तो साऊथ की स्थिति ही अगल है। अब लोकतंत्र में किसी पर एक ही भाषा को लिखने, पढ़ने, समझने का दबाव डालना भला कहां तक उचित है ? और उचित हो या ना हो, सबको सहमत करना आसान नहीं है, क्योंकि यह भारत है। यहां सबको अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपना खान-पान जान से भी ज्यादा प्यारा है। अब ऐसे में एक दूसरे की संस्कृति और भाषा का सम्मान करना ही विकल्प बचता है। ऐसे में हिन्दी राजभाषा है, जहां तक देश को राष्ट्रभाषा मिलनी चाहिए या नहीं, और किस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जाए,, ये हमारे देशवासियों के विवेक पर निर्भर करता है। मैं समझती हूं देश में हिन्दी अन्य भाषाओं के अपेक्षा ज़्यादा लोग जानते-समझते और बोलते हैं, हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री का विदेशी मंचों में हिंदी भाषा का ज्यादा उपयोग करने और अपने ज्यादा उद्बोधन हिंदी में ही देने से विदेशों में भी भारत की अन्य भाषाओं के अपेक्षा हिन्दी की ज्यादा पैठ है।
हिन्दी दिवस का इतिहास
हिन्दी दिवस का इतिहास और इसे दिवस के रूप में मनाने का कारण बहुत पुराना है। साल 1918 में महात्मा गांधी ने इसे जनमानस की भाषा कहा था और इसे देश की राष्ट्रभाषा भी बनाने को कहा था। लेकिन आजादी के बाद ऐसा कुछ नहीं हो सका, सत्ता में आसीन लोगों और जाति-भाषा के नाम पर राजनीति करने वालों ने कभी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने नहीं दिया। जबिक स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारी प्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्ददास आदि लोगों ने बहुत प्रयास किए। जिसके चलते इन्होंने दक्षिण भारत की कई यात्राएं भी की।
अंग्रेजी भाषा के बढ़ते चलन और हिन्दी की अनदेखी को रोकने के लिए हर साल 14 सितंबर को देशभर में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। आजादी मिलने के दो साल बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में एक मत से हिन्दी को राजभाषा घोषित किया गया था और इसके बाद से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
भारत की राजभाषा नीति (1950 से 1965)
26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू होने के साथ साथ राजभाषा नीति भी लागू हुई। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के तहत यह स्पष्ट किया गया है कि भारत की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी है। संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप है। हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी सरकारी कामकाज में किया जा सकता है। अनुच्छेद 343 (2) के अंतर्गत यह भी व्यवस्था की गई है कि संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक, अर्थात वर्ष 1965 तक संघ के सभी सरकारी कार्यों के लिए पहले की भांति अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग होता रहेगा। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि इस बीच हिन्दी न जानने वाले हिन्दी सीख जायेंगे और हिन्दी भाषा को प्रशासनिक कार्यों के लिए सभी प्रकार से सक्षम बनाया जा सकेगा।
अनुच्छेद 344 में यह कहा गया कि संविधान प्रारंभ होने के 5 वर्षों के बाद और फिर उसके 10 वर्ष बाद राष्ट्रपति एक आयोग बनाएँगे, जो अन्य बातों के साथ साथ संघ के सरकारी कामकाज में हिन्दी भाषा के उत्तरोत्तर प्रयोग के बारे में और संघ के राजकीय प्रयोजनों में से सब या किसी के लिए अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग पर रोक लगाए जाने के बारे में राष्ट्रपति को सिफारिश करेगा। आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के लिए इस अनुच्छेद के खंड 4 के अनुसार 30 संसद सदस्यों की एक समिति के गठन की भी व्यवस्था की गई। संविधान के अनुच्छेद 120 में कहा गया है कि संसद का कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है।
वर्ष 1965 तक 15 वर्ष हो चुका था, लेकिन उसके बाद भी अंग्रेजी को हटाया नहीं गया और अनुच्छेद 334 (3) में संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह 1965 के बाद भी सरकारी कामकाज में अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रखने के बारे में व्यवस्था कर सकती है। अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भारत की राजभाषा है।
अंग्रेज़ी का विरोध (1965 से 1967)
26 जनवरी 1965 को संसद में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि “हिन्दी का सभी सरकारी कार्यों में उपयोग किया जाएगा, लेकिन उसके साथ साथ अंग्रेज़ी का भी सह राजभाषा के रूप में उपयोग किया जाएगा।” वर्ष 1967 में संसद में “भाषा संशोधन विधेयक” लाया गया। इसके बाद अंग्रेज़ी को अनिवार्य कर दिया गया। इस विधेयक में धारा 3(1) में हिन्दी की चर्चा तक नहीं की गई। इसके बाद अंग्रेज़ी का विरोध शुरू हुआ। 5 दिसंबर 1967 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राज्यसभा में कहा कि हम इस विधेयक में विचार विमर्श करेंगे।
राममनोहर लोहिया का योगदान
स्वतंत्र भारत में साठ के दशक में अंग्रेजी हटाओं-हिन्दी लाओ के आंदोलन का सूत्रपात राममनोहर लोहिया ने किया था। इस आन्दोलन की गणना अब तक के कुछ गिने-चुने आंदोलनों में की जा सकती है। लोहिया का मानना था की लोकभाषा के बिना लोकतंत्र सम्भव नहीं है। 1957 से छेड़ी गयी इस मुहीम में 1962-63 में जनसंघ भी शामिल हो गया। लेकिन लोहिया जी के निधन, दक्षिण में हिन्दी-विरोधी आन्दोलन, राजनेताओं की राजनैतिक लालसाओं के कारण यह आन्दोलन सफल न हो सका।
समाजवादी राजनीति के पुरोधा डॉ॰ राममनोहर लोहिया के भाषा संबंधी समस्त चिंतन और आंदोलन का लक्ष्य भारतीय सार्वजनिक जीवन से अंगरेजी के वर्चस्व को हटाना था। लोहिया को अंगरेजी भाषा मात्र से कोई आपत्ति नहीं थी। अंग्रेजी के विपुल साहित्य के भी वह विरोधी नहीं थे, बल्कि विचार और शोध की भाषा के रूप में वह अंग्रेजी का सम्मान करते थे। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महात्मा गांधी के बाद सबसे ज्यादा काम राममनोहर लोहिया ने किया। वे सगुण समाजवाद के पक्षधर थे। उन्होंने लोकसभा में कहा था-
“अंग्रेजी को खत्म कर दिया जाए। मैं चाहता हूं कि अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद हो, लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है। कुछ भी हो अंग्रेजी हटनी ही चाहिये, उसकी जगह कौन सी भाषाएं आती हैं, यह प्रश्न नहीं है। इस वक्त खाली यह सवाल है, अंग्रजी खत्म हो और उसकी जगह देश की दूसरी भाषाएं आएं। हिन्दी और किसी भाषा के साथ आपके मन में जो आए सो करें, लेकिन अंग्रेजी तो हटना ही चाहिये और वह भी जल्दी। अंग्रेज गये तो अंग्रेजी चली जानी चाहिये।”
‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन को उन दिनों यह कहकर खारिज करने की कोशिश की गई कि अगर अंग्रेजी की जगह हिंदी आयेगी तो हिन्दी का वर्चस्ववाद कायम होगा और तटीय भाषाएं हाशिए पर चली जायेंगी। सत्ताधारियों ने हिन्दी को साम्राज्यवादी भाषा के के रूप में पेश कर हिन्दी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं (बांग्ला, तेलुगू , तमिल, गुजराती, मलयालम) का विवाद छेड़ इसे राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए खतरा बता दिया। इसे देश जोड़क भाषा नहीं, देश तोड़क भाषा बना दिया। लोहिया ने इस बात का खंडन करते हुए कहा कि स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी ने देश जोड़क भाषा का काम किया है। देश में एकता स्थापित की है, आगे भी इस भाषा में संभावना है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यदि हिंदी को राजकाज, प्रशासन, कोर्ट-कचहरी की भाषा नहीं बनाना चाहते तो इसकी जगह अन्य किसी भी भारतीय भाषा को बना दिया जाए। जरूरी हो तो हिन्दी को भी शामिल कर लिया जाए। लेकिन भारत की मातृभाषा की जगह अंग्रेजी का वर्चस्ववाद नहीं चलना चाहिए।
19 सितंबर 1962 को हैदराबाद में लोहिया ने कहा था, ”अंग्रेजी हटाओ का मतलब हिंदी लाओ नहीं होता। अंग्रेजी हटाओ का मतलब होता है, तमिल या बांग्ला और इसी तरह अपनी-अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा।”
उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों–करोडों को हीन ग्रंथि से उबरकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था–
”मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं।”
दक्षिण (मुख्यत: तमिलनाडु) के हिंदी-विरोधी उग्र आंदोलनों के दौर में लोहिया पूरे दक्षिण भारत में अंग्रेजी के खिलाफ तथा हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के पक्ष में आंदोलन कर रहे थे। हिंदी के प्रति झुकाव की वजह से दुर्भाग्य से दक्षिण भारत के कुछ लोगों को लोहिया उत्तर और ब्राह्मण संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई देते थे। दक्षिण भारत में उनके ‘अंगरेजी हटाओ’ के नारे का मतलब ‘हिंदी लाओ’ लिया जाता था। इस वजह से लोहिया को दक्षिण भारत में सभाएं करने में कई बार काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। सन 1961 में मद्रास और कोयंबटूर में सभाओं के दौरान उन पर पत्थर तक फेंके गए। ऐसी घटनाओं के बीच हैदाराबाद लोहिया और सोशलिस्ट पार्टी की गतिविधियों का केंद्र बना रहा। ‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन की कई महत्त्वपूर्ण बैठकें हैदराबाद में हुई।
तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी ने इस आन्दोलन के विरुद्ध ‘हिन्दी हटओ’ का आन्दोलन चलाया जो एक सीमा तक अलगाववादी आन्दोलन का रूप ले लिया। नेहरू ने सन 1963 में संविधान संशोधन करके हिन्दी के साथ अंग्रेजी को भी अनिश्चित काल तक भारत की सह-राजभाषा का दर्जा दे दिया। सन 1965 में अंग्रेजी पूरी तरह हटने वाली थी पर वह ‘स्थायी’ बना दी गयी। 1967 के नवम्बर महीने में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रनेता देवव्रत मजूमदार के नेतृत्व में ‘अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन’ किया गया था जिसका असर पूरे देश पर पड़ा। उस समय इंजीनियरिंग के छात्र देवव्रत मजूमदार बीएचयू छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। 28 नवम्बर 1967 को मजूमदार के आह्वान पर बनारस में राजभाषा संशोधन विधेयक के विरोध में पूर्ण हड़ताल हुई। सभी व्यापारिक प्रतिष्ठान और बाजार बंद रहे और गलियों-चौराहों पर मशाल जुलूस निकले।
दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बनी हिंदी
इतिहास बताता है कि हिन्दी के लिए काफी लम्बा संघर्ष हुआ है। लेकिन हिन्दी का विरोध भी जमकर हुआ। लेकिन इन सबके बीच हिन्दी का विस्तार कम नहीं हुआ। भारत की राजभाषा हिन्दी दुनिया में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। बहु भाषी भारत के हिन्दी भाषी राज्यों की आबादी 46 करोड़ से अधिक है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 1.2 अरब आबादी में से 41.03 फीसदी की मातृभाषा हिन्दी है। हिन्दी को दूसरी भाषा के तौर पर इस्तेमाल करने वाले अन्य भारतीयों को मिला लिया जाए तो देश के लगभग 75 प्रतिशत लोग हिन्दी बोल सकते हैं। भारत के इन 75 प्रतिशत हिन्दी भाषियों सहित पूरी दुनिया में तकरीबन 80 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो इसे बोल या समझ सकते हैं।
भारत के अलावा इसे नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, यूगांडा, दक्षिण अफ्रीका, कैरिबियन देशों, ट्रिनिडाड एवं टोबेगो और कनाडा आदि में बोलने वालों की अच्छी-खासी संख्या है। इसके आलावा इंग्लैंड, रूस, अमेरिका, मध्य एशिया में भी इसे बोलने और समझने वाले अच्छे-खासे लोग हैं।
वैश्वीकरण और भारत के बढ़ते रूतबे के साथ पिछले कुछ सालों में हिन्दी के प्रति विश्व के लोगों की रूचि खासी बढ़ी है। देश का दूसरे देशों के साथ बढ़ता व्यापार भी इसका एक कारण है।
सोशल मीडिया, गूगल माइक्रोसॉफ्ट विंडो ऑपरेटिंग( जिसमे हिंदी बाय डिफ़ॉल्ट है) ने भी हिन्दी को पूरे विश्व में फैलाने में अहम भूमिका निभा रहा है। सोशल मीडिया एक विशाल नेटवर्क है, जो कि सारे संसार को जोड़े रखता है, लोकप्रियता के प्रसार में सोशल मीडिया एक बेहतरीन प्लेटफॉर्म है। जिसका जमकर हिन्दी भाषी फायदा भी उठा रहे हैं। हिन्दी न्यूज़ चैनल-पत्र पत्रिका भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में काफी अच्छी भूमिका में हैं।