मृत्यु तय और सत्य है, फिर भी जीने की चाहत रखता है इंसान
रायपुर। संसार में जन्म लिए हर व्यक्ति की मृत्यु तय है, यह जीवन का सत्य है, फिर भी वह और अधिक समय जीने की इच्छा रखता है। जीवन जीने की कला ही नहीं बल्कि मृत्यु को कैसे स्वीकारें यह भी सिखाती है मानस। गीता की सर्वोच्च व्याख्या मानस में है।
गुरूतेगबहादुर सभागार में श्रीराम कथा अनुष्ठान के चौथे दिन मानस एवं गीता भागवत पुराण में आत्म प्रबंधन विषय पर मानस मर्मज्ञ दीदी मां मंदाकिनी ने बताया कि शरणागति का मार्ग बड़ा ही विलक्षण है, असामथ्र्य ही नहीं बल्कि सामथ्र्यवान भी शरणागति ले सकते है। आपकी जितनी योग्यता है आप उस अनुसार अपना मार्ग चुन सकते है। निराशा की पराकाष्ठा में एक ही मार्ग बचता है और वह है शरणागति का। यदि शरणागति का सर्वोच्च दृष्टांत देखना है तो अधर्म की पराकाष्ठा में जीने वाले मारीच का देखें। मारीच का दोष-गुण हमारे-तुम्हारे में भी है। राम और रावण दोनों के हाथों अपनी मौत को निश्चित मानकर मारीच प्रभू के हाथों मरना ही श्रेयस्कर मानता है। हर किसी की मृत्यु निश्चित है और यह जीवन का सत्य भी है फिर भी इंसान मौत से डरता है। महाभारत में राजा परिक्षित को भी कथा श्रवण कर आत्म ज्ञान हो गया कि यह शरीर नशवर है। गीता की हर व्याख्या मानस में मिल जाएगी, इसीलिए तो कहा गया है कि मानस केवल जीने की कला ही नहीं सिखाती बल्कि मृत्यु को कैसे स्वीकारें यह भी बताती है।
मृत्यु के बाद भागवत का क्या औचित्य
दीदी मंदाकिनी ने सत्संग में बड़ी तार्किक बात कही कि आज लोग अपने बुजुर्गों के मृत्यु के बाद भागवत कथा करवाते है, क्या है इसका औचित्य? जीवित रहते यदि वह कथा सुनते तो पुण्य मिलता। इसलिए जीते जी मानस कथा पढ़ लीजिए।
नशा या आत्महत्या हमारा संस्कार नहीं
मारीच अवसाद ग्रस्त होते हुए भी काफी हर्षित इसलिए था कि वह श्रीराम के हाथों मौत को प्राप्त कर रहा था। लेकिन आज अवसाद में व्यक्ति या तो नशा अपना रहा है या आत्महत्या कर रहा है। यह हमारा संस्कार तो नहीं है, हम विदेशों में नहीं उस भारत भूमि में रह रहे है जहां श्रीकृष्ण और श्रीराम का प्रागट्य हुआ है।
लोक कल्याण से बड़ा यज्ञ नहीं
बंधन से मुक्त होना है तो यज्ञ करें लेकिन यह सबके लिए तो संभव नही है इसलिए आपके पास जो धन है, विद्या है, सामथ्र्य है उसे लोक कल्याण में लगाओ। उसे कर्मयोग लीला में समर्पित कर दो। कर्म को धन्य किया यह प्रमाणित है। श्रीराम और किशोरीजी का प्राकट्य भी यज्ञ से ही हुआ है।
अनुकूलता और प्रतिकूलता में रहें ईश्वर के साथ
निराशा और प्रतिकूलता में भी यदि अपने आप को ईश्वर से जोड़ें रखा तो जीवन में अनुकूलता आ जाएगी। दोनों शास्वत सत्य है। दुख को दूर करना है तो प्रभू प्रार्थना से जुड़ें। सुंदरकांड के सूत्र जीवन में अपनाएं सफल होंगे।
00 मानस मृत्यु को स्वीकारना भी बताती है – दीदी मंदाकिनी