नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में हुई एक हत्या मामले में उम्रकैद की सजा पाए एक व्यक्ति को बरी करते हुए कहा कि मकसद का ‘पूर्ण अभाव’ होना एक अलग रंग लेता है और निश्चित रूप से यह आरोपी के पक्ष में जाता है।
जस्टिस यू.यू. ललित, जस्टिस एस.आर. भट्ट और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा की बेंच ने साथ ही यह टिप्पणी भी की कि इसका अर्थ यह नहीं है कि मकसद के अभाव में अभियोजन के मामले को खारिज कर दिया जाना चाहिए।
बेंच ने 2014 में छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट द्वारा सुनाए गए आदेश को खारिज कर दिया। मामले में दोषी ठहराने और उम्रकैद की सजा सुनाने के निचली अदालत के आदेश को आरोपी ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी, लेकिन उसकी याचिका को खारिज कर दिया गया था। हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
बेंच ने 25 फरवरी के अपने आदेश में कहा कि ऐसा नहीं है कि केवल आरोपी का मकसद एक अहम कड़ी होता है, जिसे अभियोजन को साबित करना होता है। उसके अभाव में अभियोजन का मामला खारिज नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसके साथ ही मकसद का पूर्ण अभाव मामले को नया रूप देता है और इसकी अनुपस्थिति निश्चित ही आरोपी के पक्ष में जाती है।
अभियोजन के अनुसार, एक व्यक्ति ने शिकायत दर्ज कराई थी कि उसका बेटा 13 जनवरी, 1997 के बाद से लापता है, जिसके आधार पर मामला दर्ज किया गया था। इसके बाद, 17 जनवरी, 1997 को एक तालाब से व्यक्ति के बेटे का शव मिला था और मामले को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302(हत्या) के रूप में बदल दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि याचिकाकर्ता नंदू सिंह को मामले में गिरफ्तार किया गया था और ऐसा बताया गया है कि उसके बयान के आधार पर कई साक्ष्य सामने आए। याचिकाकर्ता के वकील ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि यह मामला परिस्थितिजन्य सबूतों पर आधारित है और अभियोजन ने हत्या के पीछे नंदू सिंह का कोई मकसद नहीं बताया है।