नई दिल्ली। सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को कहा कि इस देश के नागरिकों की बोलने की आजादी को आपराधिक मामलों में फंसाकर दबाया नहीं जा सकता, जब तक कि ऐसे बयान में सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करने की प्रवृत्ति न हो। जस्टिस एल. नागेश्वर राव और एस. रवींद्र भट की पीठ ने कहा, “भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक समाज है। संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता का वादा किया गया है, इसके विभिन्न प्रावधान प्रत्येक नागरिक के अधिकारों को रेखांकित करते हैं।”
शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी मेघालय में गैर-आदिवासी लोगों के खिलाफ हिंसा को लेकर एक फेसबुक पोस्ट पर शिलांग टाइम्स के संपादक पेट्रीसिया मुखीम के खिलाफ दर्ज FIR को खारिज करते हुए की।
पीठ ने कहा कि जब प्राथमिकी में आरोप या शिकायत नहीं होती है तो कोई भी अपराध नहीं बनता है या आरोपी के खिलाफ मामला नहीं बनता है, तो प्राथमिकी को खारिज कर दिया जाता है।
पीठ ने कहा कि चूंकि अपीलकर्ता (मुकीम) द्वारा किसी समुदाय के लोगों को किसी भी हिंसा में लिप्त होने के लिए उकसाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है, इसलिए धारा 153 ए और 505 (1) (सी) के तहत अपराध के मूल तत्व बाहर नहीं किए गए हैं।
पीठ ने कहा कि फेसबुक पोस्ट की करीबी जांच से संकेत मिलता है कि मुखीम की पीड़ा को मेघालय के मुख्यमंत्री, पुलिस महानिदेशक और क्षेत्र के दोरबार शोंग (खासी गांव के संस्थानों) द्वारा दिखाई गई उदासीनता के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने के लिए निर्देशित किया गया था।