ज्ञान में अभिमान नहीं होता – लाटा महाराज

ज्ञान में अभिमान नहीं होता – लाटा महाराज

रायपुर। ज्ञानी वही है जो जिसको अभिमान नहीं है, ज्ञानी को कभी भी किसी भी बात का मान नहीं रहता और न ही किसी भी प्रकार का उसमें अहंकार होता है। जहां व्यक्ति में अभिमान आ जाता है वहां से ज्ञान चले जाता है। ज्ञान रहने पर समान भाव रहता है और वह जो भी कार्य करता है उसका परिणाम भी उसे मालूम रहता है। कांदुल दुर्गा मंदिर परिसर में चल रही रामकथा में संतश्री शंभूशरण लाटा महाराज ने मानस के प्रसंगों पर आए दृष्टांतों की व्याख्या करते हुए ये बातें श्रद्धालुजनों को बताई।

उन्होंने कहा कि व्यक्ति बड़ा वह है जो स्वयं बड़ा होकर भी दूसरों की बड़ाई करें और स्वयं छोटा बन जाए। जीवन में श्राप, ताप, पाप के नाश का सामथ्र्य केवल भगवान के पास है और जो भगवान का आश्रय लेते है उनके जीवन से इन तीनों का नाश हो जाता है। मनुष्य के जीवन में जो दुख है उसका बड़ा कारण उसका भगवान से दूर होना है। भाग्य से व्यक्ति दुखी नहीं है, भगवान से दूर होने के कारण वह दुखी है। प्रत्येक व्यक्ति में मन, मति, चित अहंकार होता है और जिस दिन मन, मति, चित में भगवान का भाव आ जाए उस व्यक्ति का जीवन धन्य हो जाता है। अहंकार से कभी किसी का भला नहीं हो सकता, अहंकार स्वयं का नाश तो करता ही है साथ ही दूसरों का भी नुकसान करता है।

उन्होने कहा कि व्यक्ति के जीवन में भगवान की भक्ति अवश्य करनी चाहिए और सच्ची भक्ति तभी आती है जब जीवन में कोई सच्चा संत मिल जाए। आज हर कोई चाहता है सब मेरे वश में रहे लेकिन भगवान और सच्चे संत ऐसे है जो हमेशा अपने भक्तों और शिष्यों के वश में रहते है। जीवन में मरना निश्चित है, मरना किससे है यह तय करना है। मारीच ने रावण के स्थान पर राम से मरना तय किया और स्वयं को तार लिया। उन्होंने कहा कि जीवन में कभी भी शराब का सेवन नहीं करना चाहिए शराब पीने से लज्जा चली जाती है और जब लज्जा चली जाती है तो फिर उसे किसी का ज्ञान नहीं रहता। यदि जीवन में नशा करना ही है तो भगवान के भजन का नशा करना चाहिए क्योंकि इस नशे में व्यक्ति हमेशा मस्ती में रहता है।

लाटा महाराज ने मनुष्य का जीवन में मरनी (परिवार का पालक) शस्त्री, मूर्ख, भगवान, धनी, डॉक्टर, वैद्य, कबिजन मानस (रसोईये) का कभी विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि इसका विरोध करने से स्वयं का ही नुकसान होता है। लाटा महाराज ने कहा कि जीवन में समस्या आने पर चिंता तो करनी चाहिए लेकिन उसे अपने अंत:करण में नहीं उतारना चाहिए। अंत:करण की चिंता ने समस्या का समाधान नहीं होने वाला बल्कि उससे स्वयं का परिवार का नुकसान होता है। समस्या आने पर चिंता के स्थान चिंतन करें और फिर कार्य करें क्योंकि कार्य करने से ही समस्या का समाधान होगा।

मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म यह है कि वह दूसरों के हितों का भी ध्यान रखें। परिवार के लिए किए गए कार्य उसके कार्य है और दूसरों के लिए गए कार्य धर्म। धर्म से धन की रक्षा की जा सकती है लेकिन धन से धर्म की रक्षा नहीं की जा सकती। यदि पास में धन नहीं है तो कम से कम अपने विचारों से अपनी सोच से ही दूसरों के हितों के लिए सोचना भी किसी पुण्य व धर्म से कम नहीं।

00 9 स्थानों पर जीव को विरोध नहीं करना चाहिए

00 चिंता नहीं चिंतन करो

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