बुराई को छिपाने नहीं, मिटाने की जरुरत – मैथिलिशरण

बुराई को छिपाने नहीं, मिटाने की जरुरत – मैथिलिशरण

रायपुर। नाली के कचरे को गंदगी बताकर ढक रहे है और बुराई का कचरा लिए शरीर को खोल रहे है, आखिर यह संस्कृति आई कहां से, पाश्चात्य देशों को इसके लिए दोषी नहीं बता सकते। परिवर्तन हमारे अंदर हुआ है, उनके नहीं। संसार को देखने की दृष्टि बदल गई है। आज बाहर वालों से नहीं बल्कि अपनों से ज्यादा डर है।

महामाया मंदिर परिसर में चल रही रामकथा में संत मैथिलीशरण भाईजी ने बताया कि हम कचरे को निकालते नहीं छुपाते है, बुराईरुपी कचरे को शरीर और मन से निकालने की, मिटाने की जरुरत है और इसका रास्ता गुरु बताते है। निष्ठा भगवान के प्रति है तो हृदय में एक ही चित्र धारण करो,सीताजी के समान। चित्र तो आज घरों में बदलते रहते है जब तक संतुष्ट नहीं हो जाते है। अब तो सलाहकार भी वैसे ही आ गए है जो भगवान की मूर्ति को घर से निकलवाते है और काला कुत्ता पालने की सलाह देते है। जिस दिन पत्थर या पीतल की मूर्ति में भगवान को पाएंगे आनंद की अनुभूति करेंगे।

कितना भी है पर तृप्त नहीं

संसार में खाली को भरने की जरुरत अभी भी है। घड़ा इसलिए खाली है कि सब कुछ होते भी तृप्त नहीं है जिसके पास है वही आज भिखारी बने हुए है। कोई हमें कुछ देंगे, इसी में जीवन गुजार रहे है जीवन के अंतिम दिनों में भी क्या मांगते जाएंगे? ऐसा करेंगे तो भगवान की चरणों में नहीं जा सकेंगे। क्योंकि भगवान के पास भी जाकर मांगेगे।

लोग क्या कहेंगे

साधना का आधार यदि यह रहेगा कि लोग क्या कहेंगे तो केवल घूमते रहेंगे। अवसर जो मिला है उसका लाभ दूसरों को देंगे तो क्या होगा? हमारे और आपके चित्त की स्थिति केवल प्रशंसा सुनने की हो गई है। पकड़ने की साधना तो साधक को ही करनी होगी। हम तो मनुष्य होकर भी पशु-पक्षी से नहीं सीख पा रहे है।

कृपा का प्रमाण धन नहीं

कहते है अरे हम पर तो भगवान की कृपा ही नहीं है, कृपा का प्रमाण धन, वस्तु या ऐश्वर्य नहीं है। संसारी जीव तो केवल जोड़ने में लगे रहता है एक नहीं बल्कि चार पीढ़ी के लिए, तब दुख और दोष की निवृत्ति कैसे होगी। पूरा जीवन गुजार देते है दूसरों की निंदा करते हुए तो भगवान की कृपा कैसे मिलेगी।

क्या यही है हमारी संस्कृति

बच्चे हमसे जो देख और सुन रहे है वही तो सीख रहे है। इसलिए आज अपने ही बच्चों के सामने घिघ्घी बंधे रहती है। आज जन्मदिन पर प्रकाश की जगह अंधकार किए जाते है, केक खाने की जगह शरीर पर मलते है। क्या यही हमारी संस्कृति है। आते तो विदेशी सैलानी भी है पर जितना उन्हें आवश्यकता है वही सीखने आते है और सीखते भी है पर हम है कि सेल्फी लेने में लगे रहते है वे नहीं लेते। इसीलिए कि हम आज भटक गए है।

00 लोग तृप्त नहीं है, जिसके पास है वही सबसे बड़ा भिखारी

00 परिवर्तन के लिए पाश्चात्य संस्कृति नहीं हम स्वयं दोषी

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